Friday, December 31, 2010

श्री राम

काम की व्यस्तता के कारण बहुत दिन बाद लिख रहा हूँ तो सोचा क्यों ना नए साल की शुरुआत भगवान से आशीर्वाद ले कर की जाए। सब को नए साल की बधाई


श्री राम

जिसके साँसों में बसे, चार वेद, सब ग्रन्थ
वही श्रृष्टि का आदि है, वही श्रृष्टि का अंत. ||||

रूद्र, विधि इन्द्र भी भजते जिनके नाम
निर्गुण में वो ब्रह्म है , वही सगुन में "राम" ||||

है विस्तृत ब्रह्माण्ड सा और लघु ज्यों बिंदु
तू बसता है बूँद में तुझमे बसता सिन्धु. ||||

तुम भक्तों के प्राण हो, भक्त तुम्हारे प्राण
एक-दूजे में हो बसे जैसे तुम-हनुमान.||||

जिसकी भक्ति पा हुए, सबरी, गिद्ध निहाल
मुझपर भी जो हो कृपा, हो जाऊं मालामाल ||||

छीर-सिन्धु विष्णु बसें, मृत्युंजय कैलास.
ब्रह्मलोक ब्रह्मा बसें, राम बसो मम पास. ||||

मिथि के कुल के शिरोमणि की तनया की सास
ता के सुत आकर करो मोरे उर में बास ||||

हर-सुत वाहन* के रिपु बनते जिनके हार.
ता दारा-सखी के पति रहो हमारे द्वार.||||

ज्यों बध दसमुख बालि को, बधो हमारो पाप
हरो सकल संताप जस काटा ऋषितिय शाप. ||||

राजेश कुमार "नचिकेता"

* यहाँ हर-सुत का मतलब कार्तिकेय माना जाये जिनके वाहन मोर हैं.

Saturday, December 4, 2010

क्या बात हो!


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क्या बात हो!

एक छत
दो रोटी
के संग थोड़ा वसन भी हो
तो क्या बात हो!!

युवाओं में टशन हो
टीनेजर में फैशन हो
संग सुसंस्कारी मन भी हो
तो क्या बात हो!!

एक सर्प एक मयूर
रहे सदा जिसमे संग-संग
ऐसा कोई सदन भी हो
तो क्या बात हो!!!!

दिवाली पे
सजा करे अट्टालिकाएं जरूर
मगर गरीब का भी घर हो रौशन
तो क्या बात हो!!!

नहीं गुरेज़ तम के वजूद से हमें
भर सके जो दीपक को नेह से
वो बरसाने वाला कोई घन भी हो
तो क्या बात हो!!

हवा,
उड़ा देती है तृण औ गर्द को
दुर्गुणों को उड़ाने की हो ताक़त जिसमे
ऐसा कोई पवन भी हो
तो क्या बात हो!!

प्रान्त हो भाषा भी हो
हो अनेकता भले ही
अखंड एक अपना
वतन भी हो
तो क्या बात हो!!

राम, रहीम, ईशा, गुरु
सब रहें मगर "नचिकेता"
हो मानवता के भी दर्शन
तो क्या बात हो!!!

राजेश कुमार "नचिकेता"

Thursday, November 25, 2010

समय की गणना का दृष्टिकोण: समय और संख्या



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समय की गणना का दृष्टिकोण: समय और संख्या
बहुत दिनों से रामोदार (click here to know more about Raamodaar) की कोई खबर नहीं मिली और ना ही उसे देखा तो अचानक ध्यान हो आया की ना जाने कहाँ गायब हो गया. मुझे डर लगा की कहीं कोई अनिष्ट ना हो गया हो उसके साथ. असल बात ये है की मैं भी उसकी बातों का आदि हो गया हूँ. कभी कभी मैं ये सोचता हूँ की किसी भी परिस्थिति में उसके विचार अजीब होते हैं (जैसा की आप जानते हैं). इतनी बाल-सुलभ बातें बहुत कम सुनने में आती हैं सो मन हल्का करने के विचार से मैं उसके घर, धाँगड़-टोली की तरफ चला गया. मुझे उसके घर की ओर जाते हुए देखकर लोगो ने ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे मैं कोई इंसान नहीं बल्की किसी और ग्रह का प्राणी हूँ. खैर छोडिये ये सब. मेरी पहली दृष्टि जब उसपर पड़ी तो पाया की वो अपने गाय के बछड़े के बदन से जूएँ निकाल रहा था और साथ ही गाना गा रहा था...."कोएल बीनू बघिया...ना सोहे राजा (१)..... ". मुझे देखते ही प्रसन्नता और विष्मय से भरे चेहरे से मुझे पूछा...."अरे बाप रे....एतना दिन के बाद सूझे* आप. एक ठो बात कहते हैं आप तो पिछला कुछ दिन में मोटा गिये है हजूर."... इतना बोलते ही ठठाकर हँस पड़ा लेकिन अगले ही पल संभल कर बोला "लेकिन आप काहे ला इधर आये कोनो काम था त हमको बोला लेते नs".
मैंने उसे सहज होने को कहा और बात को बदलते हुए पूछा, "का भई अपना लेरुआ * (बछडा) से का बात कर रहे थे?"
"का जो बात करेंगे हजूर...हम तो इहे कह रहे थे की रे लेरुआ तू तो बीसे साल में अपना जिनगी पूरा लेता है..हम लोगन के तो ढेर जीना परता है..ओकरा में भी राम राम का नाम लेवे के टैम * नई मिलता है". इतना बोलते ही उसने सवाल दागा अपने रामोदार स्टाइल में....
"अच्छा हजूर एगो बात बताइये त कि जो हम जलमते * ही राम राम जपना चालू करें त कै बेर राम राम हो जाए पूरा जिनगी * भर में?"
विज्ञान से सम्बंधित रहने के करान शायद ही ऐसा कोई दिन होता होगा जब कोई छोटी या बड़ी गणना ना करता होऊ. लेकिन कभी ऐसी गणना नहीं की थी जैसी रामोदार ने कही. सोच ही रहा था की उत्तर देने की शुरुआत कैसे करू कि देखा रामोदार बड़े तेज़ी से अपने बछड़े के पीछे भगा. शायद रस्सी ढीली रह गयी थी और बछड़े ने अपने स्वातंत्र्य का पूरा लाभ उठाया और भाग खड़ा हुआ...दोनों की दौड़ देखता हुआ भी मैं उस गिनती के बारे में ही सोच रहा था. और जल्दी में गिनती कर डाली. निष्कर्ष कुछ रोमांचक और चिंतित करनेवाला था.
देखा जाये तो एक साल में कुल ३ करोड़, १५ लाख और छत्तीस हज़ार सेकंड होते हैं. सुविधा के लिए इसे ३ करोड़ मान लिया जाए. और अगर हम हर सेकंड ३ बार भी राम का नाम ले तो साल भर में ९ करोड़ और १०० साल में ९०० करोड़ बार बस. इस बात से ना जाने क्यों अपनी जिन्दगी बहुत छोटी लगने लगी थी. समय कि इतनी छोटी इकाई से भय सा होने लगा था. लगा कि ये महत्तम संख्या का दसवा हिस्सा भी हम इस्तेमाल नहीं करते. ज्यादातर समय तो लोग निंदा, झगडा और सोने में बिता देते हैं.
अचानक एक बात और कौंधी जो और भी झकझोरनेवाली थी.
एक नज़र डाले अगर 2G घोटाले में लिप्त रकम पर (१ लाख ७० हज़ार करोड़) तो पाते हैं कि अगर कोई हर सेकेण्ड १ रुपया कमाए तो इतनी रकम कमाने में उसे ६०,००० साल लगेंगे. या यू कहें कि ६०,००० साल में जितनी बार आप राम का नाम नहीं ले सकते उतनी रकम डकारते मिनट भी नहीं लगे इन लोगो को. आपको आसानी के लिए बता दूं कि हर सेकंड १ रुपया के हिसाब से ताउम्र ३ करोड़ रूपये बने अगर तो इसका मतलब है कि ३० साल की नौकरी में १ लाख रूपये प्रतिमाह जो कि महत्तम रकम हो सकती है एक इमानदार आम आदमी के लिए.
देश के कर आदमी की जेब से औसतन १७,००० रूपये लील गया यक प्रकरण. यह कितने ही घोटालों का महाघोटाला है.
और इसके बाद अंत क्या....."इस्तीफा". "पद का त्याग" करके "त्याग के पद" पे आसीन हो जाना कोई इनसे सीखे.
मैं अभी भी उसी संख्याओं के चक्कर में लगा था कि रामोदार ने आवाज़ लगाई "बोलिए न का हुआ..?" मगर मैं कुछ बोल नहीं पाया....एक बार फिर रामोदार ने कुछ सोचने को मजबूर किया था...

reference
१. शारदा सिन्हा द्वारा गाया हुआ एक भोजपुरी लोक-गीत.
*सूझे: दिखे हैं
टैम: टाइम
लेरुआ: गाय का बछडा.
जलमते: पैदा होते ही.
जिनगी: जिन्दगी.

राजेश कुमार "नचिकेता"

Thursday, November 18, 2010

श्रद्धांजली

रफ़्तार www.hamarivani.com

ये कविता उन वीरो कि इच्छा है जिन्होंने देश के लिए जान दी है और जो देश में सैनिको के साथ होने वाले व्यापार और राजनीति से व्यथित और सताए हुए हैं.
श्रद्धांजली


मातृ-अंक रख अपना मस्तक
जब अंतिम साँसें ली थी.
जनम सफल माना था सबने
जिसने भी जाने दी थी.
मरण सफल नहीं तब तक जब तक
इसका कोई अर्थ ना हो.
भान रहे ऐ देश-वासियों
मृत्यु हमारी व्यर्थ ना हो.|१|
नहीं डरते हम शत्रु-सैन्य से,
डर लगता है अपनों से.
लड़े काल से हम यथार्थ में
हार गए हैं सपनो से.
लगे न बोली लाश की देखो
ऐसा कोई अनर्थ ना हो
भान रहे ऐ देश-वासियों
मृत्यु हमारी व्यर्थ ना हो.||.
पदक नहीं देना और ना ही
पुष्प-गुच्छ करना अर्पण
भले ना करना मेरा श्राद्ध
या मत करना मेरा तर्पण
भटके चाहे मेरी आतमा,
भले प्राप्त मुझे स्वर्ग ना हो.
भान रहे ऐ देश-वासियों
मृत्यु हमारी व्यर्थ ना हो.||
दण्डित करो उस पापी को
जो वीरो का व्यापार करे
श्रद्धांजलि उन्नत होगी
गर राजनीति से रखो परे
पुनरजनम हो इसी भूमि पर,
नहीं ग़म गर अपवर्ग ना हो
भान रहे ऐ देश-वासियों
मृत्यु हमारी व्यर्थ ना हो.||.

राजेश कुमार "नचिकेता"

Sunday, November 14, 2010

जीवन की जय बोल


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अभी
के समय में आततायियो, हत्यारों और पापियों (आतंकवादियों) को पाप और हिंसा का मार्ग छोड़ कर प्रेम और धरम के मार्ग पर पेरेरित करने के लिए संबोधन.

जीवन की जय

धड़ मस्तक से नहीं पृथक कर, मृत्यु बांटने वाले
लहू को बहने दे नस में ही, गला काटने वाले
जीवन रक्षक प्राण-वायु में नहीं हलाहल घोल
प्रेम, अहिंसा, धर्म सत्य और जीवन की जय बोल |१|

प्राण हेतु है कर्म भोग का, वध से मिलता क्या?
क्षत-विक्षत शव देख कलेजा नहीं पिघलता क्या?
करो चयन तुम मार्ग धरम का यही है अमृत बोल
प्रेम, अहिंसा, धर्म सत्य और जीवन की जय बोल |२|

कई शंख अणु, कोटि कोशिका और लक्ष्य कई ऊतक
कुछ सहस्त्र अंग, अस्थि सैकड़ों और बहुत से मूलक
संग भूत पंच मिला क्या जीवन गढ़ सकता है बोल
प्रेम, अहिंसा, धर्म सत्य और जीवन की जय बोल |३|

दुर्गम रचना, सुगम तोडना, सृजन कठिन, विध्वंस सरल है
शक्तिहीन तेरा शिकार पर याद रहे कि काल प्रबल है
कैसा हित तू साध रहा है प्राण छीन कर बोल
प्रेम, अहिंसा, धर्म सत्य और जीवन की जय बोल |४|

कितने सुन्दर सर, सरिता, पर्वत सागर और ये वन
थलचर वनचर के कलरव से घूंज रहा है उपवन
देख सृष्टि कि अनुपम रचना आँखों के पट खोल
प्रेम, अहिंसा, धर्म सत्य और जीवन की जय बोल |५|

-नचिकेता
१४ नवम्बर २०१०

Saturday, October 23, 2010

समर-शंख


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मेरी यह कविता मानवता के विरुद्ध षड़यंत्र रचने वालो को युद्ध के लिए ललकार है.

समर-शंख
प्रण लेते हैं झुकने देंगे मानवता का भाल नहीं.
विप्लव कि वेला आई है यह परिणय का काल नहीं.
कुंडल, कंगन त्याग देह को अब आयुध से सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो.||१||

रास-रंग, मकरंद-मधु हो या प्रियतम का आलिंगन
भोग मिले तीनो लोकों का या मिल जाए इन्द्रासन
नहीं रुकेंगे कदम हमारे धरम-युद्ध अब करने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो. ||२||

लालबिहारी* नहीं चाहिए, नहीं चाहिए पन्त* अभी
गीत गाये जो जीवन के अवकाश पाओ वो कवि सभी.
धमनी बने कलम, शोणित से गीत मृत्यु के रचने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो. ||३||

गदा, तेग, गांडीव तुम्हारा वीर कर रहे आवाहन
चलो तुनीरो खुद को भर लो होने वाला है अब रण
घोड़े हाथी शाला त्यागो चतुरंगिनी सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||४||

हिमगिरी से बलशाली होओ, सागर से गंभीर बनो
उड़े शत्रु लघु-रेणु जैसे शौर्यवान वो वीर बनो
ऐसे वीरो कि टोली ले चक्रव्यूह अब रचने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||५||

धूमकेतु! तुम अपनी गति दो औ नक्षत्रों अनुशासन
ग्रहों! दान तुम शस्त्रों का दो, क्षमा पृथ्वी तुम दो न
शीतल चन्दा दूर रहो तुम प्रलय भानु को तपने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||६||

मानवता के शत्रु आओ हम तैयार खड़े हैं
तुझ जैसे कितने पापी से हम पहले भी लड़े हैं|
धर्म,सत्य से जीतेगा तू सोच रहा है मन में
सिंह हारे खरहे से ऐसा होता है क्या वन में|
रावण हो या हो विराध सब मिले धूल में क्षण में
उसी तरह अब तेरी बारी आई है इस रण में
मेरी विजय सुनिश्चित जानो विजय-थाल को सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||७||

--नचिकेता।

* बिहारीलाल और सुमित्रानंदन जैसे महान कवियो की श्रृंगार और प्रकृति पर लिखी गयी कविता के सन्दर्भ में.

Saturday, August 28, 2010

फांसी कि फांस में फंसी सरकार!!!!!!!!!!

अपने पांच साल के बच्चे, फोचला, को कंधे पे बिठा के रामोदार मस्ती में कोई चैता गता हुआ चला आ रहा था. आते ही मुझे दो भुट्टे दिए और अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा "जै हो!!!"
"का हो रामोदार क्या समाचार है आज?" मैंने अभिवादन स्वीकार करते हुए यू ही पूछ लिया? मेरा ये प्रश्न सुनकर वो बालक कि तरह खिलखिलाकर ऐसे हँसा मानो कह रहा हो "क्या मूर्ख आदमी है, अखबार खुद पढ़ रहा है और समाचार मुझसे पूछ रहा है." मगर बोला "हजूर हम कोन समाचार देंगे आपको पेपर तो आप अपने पढ़ रहे हैं आपे बताइए कि का छापा है छौरा और दाढ़ीवाला के है केकरा फोटो है". उसने अजमल कसाब और अफजल गुरु कि तस्वीरों कि तरफ इशारा करते हुए पूछा. मैंने सवाल को ज्यादा गंभीरता से ना लेते हुए कहा "इन दोनों को कचहरी से फांसी कि सजा हुई है और सरकार इन्हें फांसी देने के बारे में विचार कर रही है." फांसी में मिल रही देरी कि बात सुनकर खुश हो गया और सरकार कि प्रशंसा करता हुआ बोला. "का बात है! केतना अच्छा सरकार है जो फांसी देवे से पहले एतना बार सोचता है. लगता है सच्चे में सुराज (पाठक स्वराज पढ़े) गिया है. ऐसा सरकार पैहले होता भगत सिंघ लोगवन को फांसी नई होता हजूर. लेकिन हम जाते हैं कही देर से गिये फोचला का माय हमको फांसी दे देगा."
उसकी इस बात को उसका भोलापन कहूं, या घटनाक्रम की अनभिज्ञता या कुछ और मगर उसने मेरे अंतर्मन को हिला दिया. मेरे मानसपटल पे अनमने ढंग से सुनाई गयी खबर के बदले एक बहुत ही विस्तृत और व्यापक सा प्रश्न कौंध गया. सवाल ये था की दुर्दांत आतंकी होने के बावजूद ये अब तक फांसी के फंदे से दूर है और ना जाने कितने दिन और दूर रहेंगे. साथ ही ना चाहते हुए रामोदार ने जो तुलनात्मक टिपण्णी भगत सिंह के बारे में की वो भी विस्मृत करने लायक नहीं थी. जब भगत सिंह को फांसी की सजा हुई थी तब चाहते तो गांधीजी या तब की कांग्रेस उन्हें बचा सकती थी. मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया शायद इसलिए की वो उग्रवाद और हिंसा के पक्षधर थे भले ही वो राष्ट्र के लिए ही क्यों ना किया गया हो. मगर अभी क्या हो रहा है? कसाब और अफजल गुरु ने तो राष्ट्रद्रोह किया है. फिर भी फांसी नहीं. जिस कांग्रेस ने शक्ति होने के बावजूद भगत सिंह को नहीं बचाया उसी कांग्रेस की सरकार को इन दोनो को फांसी देने में इतनी समस्या क्यों हो रही है. क्या ये इच्छा-शक्ति की कमी है या कुछ और. ये दोनों तो शास्त्र (नीचे व्याख्या देखे*) के हिसाब से आततायी की श्रेणी में आते हैं. जिसका वध सुनिश्चित करना राजा का काम है. क्या अपने राजा में प्रजा के हित कि रक्षा करने का सामर्थ्य है?
कई कोस लम्बे बायोडाटा के स्वामी होने के बावजूद अपने प्रधानमंत्री में आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के प्रति उदासीनता उनकी उपलब्धि को खराब करती है. लोग कहते हैं उनकी अपनी राजनैतिक विवशता है. वो राजनितिक विवशता ही क्या जो प्रजा-हित के काम करने में बाधक हो.
ईश्वर हम सब कि रक्षा करे. ॐ शान्ति शान्ति शान्ति

---नचिकेता २८ अगस्त २०१०.
*(जो किसी के घर में आग लगावे, किसी को विष दे कर उसकी हत्या करे, स्त्रियों और बालको को अकारण कष्ट पहुचाये वो आततायी कहलाते हैं और राजा का कर्त्तव्य है कि ऐसा करना प्रजा को वीभत्स लगने के बावजूद उसका वध शीघ्र करे यही राष्ट्र और प्रजा के हित में है.)

Friday, July 2, 2010

रामोदार

आगे की पोस्ट लिखने से पहले मैं अपने एक किरदार से आपका परिचय करा दूं. नाम तो उसका कुछ भी हो सकता है पर मैंने नाम रखा है "रामोदार". रामोदार ही क्यों फिर कभी बताऊँगा. पहले परिचय करा दूं. रामोदार अपने अब तक के जीवन में बस एक बार स्कूल गया था जब भागलपुर जिले के खरीक गाँव का मध्य विद्यालय उसके गाँव के लोगो के लिए बाढ़ की विभीषिका से बचने की शरणस्थली बना था. उसके अलावा कभी गाय भैंस चराने भी स्कूल जाना नहीं हुआ पढ़ाई करने का तो सोचना ही क्या. देखने में वो प्रेमचंद के हल्कू जैसा या फिर झूरी जैसा होगा ऐसा मान सकते हैं. बोलने का अंदाज़ बिलकुल ठेठ मगर आत्मविश्वास और शाहस से भरा हुआ क्योकि अपने देश में गरीब में आत्मविश्वास का होना अपने आप में बहुत बड़े शाहस की बात है. जो कपडे वो पहनता था वो इतने मलिन होते थे की कोई यकीन नहीं कर सकता की कभी वो नए भी रहे होंगे. कपडे वो कभी साफ़ नहीं करता था क्योकि उसकी आस्था थी की कपडे तब तक "नए" बने रहते हैं जब तक धुले ना जाए. यह पूछने पर की वो कपड़ो को कभी साफ़ क्यों नहीं करता बड़े ही सादगी से कहता था "कपड़ा धोने से पुरना हो जाता है इसलिए हम धोयबे नै करते हैं". कपडे को नित्य नवीन रखने का यह नूतन प्रयोग मुझे अद्भुत लगा. रामोदार ने कभी किसी भी काम के लिए किसी को मना नहीं किया होगा. उसके जीवन में कितनी परेशानिया थी इस बात से पता चलता है की वह ११ बच्चो का पिता था जिसमे से ६ जीवित हैं. बावजूद इसके उसके चेहरे से मुस्कराहट कभी हटती नहीं थी. इतनी निर्धनता में भी हसने वाले उस जीवट को देखकर सही में यकीन करना पड़ता था की मनुष्य ही ईश्वर की बनाई हुई सर्वोत्तम रचना है. उसका तकिया-कलाम था "बाकी ठिक्के है!!!". मुझे उससे एक बार की बात याद आती है जो आपको बताना चाहूँगा. एक बार दूर से उसे देखा तो उसका चेहरा कुछ रुआंसा सा लगा मगर जैसे मैंने नाम ले कर पुकारा तो वही साश्वत मुसकुराह लिए उत्तर आया "जै हो". मैंने पूछा: "क्या हाल है हो रामोदार? बोला "ऊ हमरी छौ मैहना का गाभिन गैया को कुतवा काट लिया था ना उसी को असाम रोठ पर फेकने गिये थे. बाकी ठिक्के है." यहाँ आपको ये बताना जरूरी समझता हूँ कि अपनी गाय के मरने पर सहजता का भाव उसकी अपने पशु के प्रति उदासीनता के कारण नहीं बल्कि उसकी सहनशीलता के कारण था. इतने अभाव के बीच भी प्रसन्न रहना वो जानता था.
यह किरदार हम सब को काफी कुछ सिखाएगा और जीवन के प्रति हमारी आस्था को प्रगाढ़ करेगा ऐसी उम्मीद करता हूँ. हर हफ्ते इस किरदार को केंद्र में रखकर कुछ समकालीन समस्याओ पर व्यंग्य लिखने कि कोशिश करूंगा. आपका प्यार चाहूँगा.
-नचिकेता

Monday, June 28, 2010

कलयुग

Albela Khatri, Online Talent Serach, Hindi Kavi

मेरे द्वारा रचित
प्रविष्टियाँ पढ़ें


कलीकाल घनघोर में बहती उलटी धार|
दया धरम सत्कार के बदले पड़ती मार||

लच्छ लच्छमी हो गयी, हो गया भच्छ अभच्छ |
गोरस, गंगा गंध हुई, मदिरा हो गयी स्वच्छ||

नर नारी का भेद गया, लाज बिका बाज़ार |
अंग अंग नंगा हुआ, हाय रे हाय सिंगार ||

नयन तरेरे राम पर, काम हुआ सुखमूल|
बस मादा प्यारी रही, मात-पिता भए शूल||

जुआ, कपट, व्यभिचार का बढ़ता नित व्यापार|
चोर, वधिक, पापी फिरे मुक्त सकल संसार||

रे मन! मत धीरज तजो, चिंता करो ना शोक|
धरम का ध्वज लहराएगा, गूंजेगा जयघोष||

स्वच्छ धरा हो जाएगी, साधू होंगे लोग|
जब हरि कल्कि रूप ले आयेंगे इस लोक||

---नचिकेता

Sunday, May 2, 2010

प्रश्नोत्तर







अपनी कुछ कलमबद्ध पंक्तियों से अपने ब्लॉग कि शुरुआत करना चाहता हूँ। इसमें एक बहुत ही पुराने सवाल का जवाब ढूँढने कि कोशिश की गयी है ।

पूछे पंडित यार सॉ, बूझो निज निज ढंग।
क्या पहले मुर्गी भई या भयो पहले अंड। १

एक कहे मुस्काई के बूझन में नहीं कष्ट।
मुर्गी ही पहले भई क्योकि लेडीज़ फस्ट। २।

मुर्गी कैसे आएगी बिन अंडे के यार
अंडा आया आदि में फिर हुआ जगत विस्तार । ३।

आदि-अंत के प्रश्न में मुर्गे को मत भूल।
मुर्गा मुर्गी प्रेम करे फिर खिले अंड-सा फूल। ४।

रचे विधाता श्रृष्टि को गढ़े लक्ष्य कई जीव ।
प्रेम प्राण का मूल है अन्यथा सब निर्जीव । ५।

-"नचिकेता"